Site icon Khabribox

अल्मोड़ा: उलोवा द्वारा अतिक्रमण हटाए जाने के दोहरे मापदंड को अपनाए जाने का किया गया विरोध

अल्मोड़ा जिले से जुड़ी खबर सामने आई है। उत्तराखण्ड लोक वाहिनी ने अतिक्रमण हटाए जाने के दोहरे मापदण्ड की आलोचना की है प्रदेश में उच्चतम न्यायालय के आदेश पर अतिक्रमण हटाए जा रहे हैं। अतिक्रमण हटाओ अभियान पर दोहरा मापदण्ड अपनाये जाने का विरोध किया है। वाहनी ने कहा है कि पिछले चुनाव में यह तथ्य ऐतिहासिक रूप से सामने आए हैं कि उत्तराखण्ड के मैदानी जनपदों में बीस प्रतिशत मतदाता बढ़ गए। ये मतदाता अतिक्रमणकारी हैं या वास्तविक इसकी जांच होनी चाहिए। देहरादून जैसे राजधानी क्षेत्र मे ऋषिपर्णा (रिस्पना) नदी के तट पर बाहरी राज्यों से आए बड़े -बड़े लोगों ने बडे-बड़े अतिक्रमण किए हैं।

भू – राजनैतिक अतिक्रमण पर सरकार लगाए रोक

यही नहीं उत्तराखण्ड में राजनैतिक परिदृश्य भी बदल दिया गया है। इसके लिए वे राजनैतिक दल सीधे तौर पर जिम्मेदार है जिनकी इस राज्य में सरकारें रही हैं। सरकार को चाहिए कि वह पता लगाए कि 5 सालों में राज्य के मैदानी जनपदों में बीस प्रतिशत वोटर कैसे बढ़ गए। यह तो सम्भव ही नहीं कि राज्य में पांच साल में 20 प्रतिशत आबादी जन्म हो गई। इस अप्रत्याशित वोटर की जांच कर इन्हें वोटर लिस्ट से हटा कर भू – राजनैतिक अतिक्रमण पर सरकार रोक लगाए। वाहनी ने कहा है कि यदि इस भू – राजनैतिक अतिक्रमण पर सरकार ने रोक नहीं लगाई तो 2026 में होने वाले परिसिमन में उत्तराखण्ड के पर्वतीय जनपदों में विधायकों के पद और कम हो जाएंगे। पिछले परिसीमन में ही पहाड़ों की छ: सीटे कम हो गई है। अगले परिसीमन में यह सीटें और कम हो जायेगी। जबकि पहाड़ों में जब हजारों गांव भूतहा गांव बन गए है। इसका कारण यह है कि पहाड़ों को उनके हिस्से के विकास से वंचित रखा गया है। जिस कारण लोग पलायन के लिए बाध्य हैं।

पहाड़ों में रह रहे लोगों को अंग्रेजी सरकार के प्रावधानों की तरह ही परम्परागत कानूनों का देना चाहिए लाभ

सरकार को अतिक्रमण हटाने से पहले पलायन आयोग के निष्कर्षों को भी देखना चाहिए तथा पीढ़ियों से पहाड़ों में रह रहे लोगों को अंग्रेजी सरकार के प्रावधानों की तरह ही परम्परागत कानूनों का लाभ देना चाहिए। सरकार को यह तथ्य भी संज्ञान में लेना चाहिए कि पहाड़ो में पहले ही जनसंख्या पहले से ही कम हो गई है। अब सरकार बचे कूचे लोगों को भी अतिक्रमण के नाम पर उजाड़ रही है। उ. लो. वा. ने कहा है कि सरकार को अंग्रेजों के समय पहाड़ों में लागू शेड्यूल कानूनों का भी अध्ययन कराना चाहिए।

सरकार को इसके लिए बाहरी लोगों द्वारा जमीनों की खरीद फरोख्त पर लगानी चाहिए रोक

साथ ही इस बात का संज्ञान भी लेना चाहिए कि 1962 में जो जमीनों की पैमाईस हुई उसमें वे लोग भूमिहीन हो गए जो बाहरी इलाकों में रोजगार के लिए गए थे। मौके पर मौजूद नहीं हो सकें। जबकि उन जमीनों में उनका पैत्रिक हक था। पैमाईस के समय उनकी जमीनें बेनाप दर्ज कर दी गई। ऐसी जमीनों पर काबिज लोगों का पक्ष सरकार को न्यायालय में रखना चाहिए। रोजगार व जीवन यापन के लिए न्यूनतम भूमि किसी भी नागरिक की मौलिक जरूरत है। पहाड़ों में अधिसंख्य आबादी के पास अब आवास बनाने के लिए भी जमीने नहीं बची है। ऐसे में रोजगार व अन्य कारणों से लोग सड़कों के किनारे काबिज हो गए हैं । कई लोग नाप जमीनों मे भूस्खलन के कारण भी सरकारी जमीनों मे काविज है। कुछ लोग अंग्रेजों व आजाद भारत में लोकमान्य सिलसिला कानूनों की वजह से भी कथित सरकारी व वन भूमि में बसे हैं। इन सभी पारम्परिक व पूर्व में लागू परम्परागत कानूनों का भी सरकार को अध्ययन करना चाहिए। सरकार को इसके लिए बाहरी लोगों द्वारा जमीनों की खरीद फरोख्त पर रोक लगाने के साथ ही यहाँ की प्राकृतिक , सामाजिक, आर्थिक संरचना पर सरकार को सहानुभूति पूर्वक विचार करना चाहिए।

सर्वाधिक जनसंख्या वाले जिलों में चलाया जाए अतिक्रमण अभियान

उ. लो.वा. ने कहा है कि यदि सरकार उच्च न्यायालय के आदेश के प्रति इतनी ही गम्भीर है तो यह अभियान उन जनपदों से आरम्भ किया जाय जहां सर्वाधिक जनसंख्या बढ़ गई है तथा कंक्रीट के जंगल उग आए हैं। सरकार मूल निवास 1951 को वैधानिक दर्जा दे।

Exit mobile version