बागेश्वर से जुड़ी खबर सामने आई है। आज से बागेश्वर में उत्तरायणी मेले का आयोजन किया जा रहा है। जिसे भव्य रूप दिया गया है। बागेश्वर में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली उत्तरायण की रौनक ही कुछ अलग है ।
आज से उत्तरायणी मेले का आगाज
आज मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी मेले का विधिवत उद्घाटन करेंगे। कुछ समय पहले मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने कहा कि मकर संक्रांति पर्व पर बागेश्वर में मनाए जाने वाले उत्तरायणी मेले को पर्यटन मानचित्र पर लाया जाएगा। इसे अंतराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई जाएगी। ऐतिहासिक नगरी बागेश्वर में लगने वाले उत्तरायणी कौतिक के लिए भगवान बागनाथ की नगरी सजकर तैयार है। आज से सांस्कृतिक झांकी के साथ मेले का आगाज होगा। वर्ष 2021 और 22 में कोविड संक्रमण के कारण मेला नहीं हो पाया है। इस बार दो साल के व्यवधान के बाद मेला हो रहा है। आयोजन समिति ने मेले को भव्य बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। आज 14 से 23 जनवरी तक बागेश्वर नगरी कौतिक के रंग में रंगी रहेगी। 24 जनवरी की दोपहर मेले का विधिवत समापन होगा।
उत्तरायणी कौतिक
बागेश्वर का कस्बा पुराने इतिहास और सुनहरे अतीत को संजोये हुए है । स्कन्द पुराण के मानस खण्ड में कूमचिल के विभिन्न स्थानों का विशद् वर्णन उपलब्ध होता है । बागेश्वर के गौरव का भी गुणगान किया गया है । पौराणिक आख्यानों के अनुसार बागेश्वर शिव की लीला स्थली है । इसकी स्थापना भगवान शिव के गण चंडीस ने महादेव की इच्छानुसार ‘दूसरी काशी’ के रुप में की और बाद में शंकर-पार्वती ने अपना निवास बनाया । शिव की उपस्थिति में आकाश में स्वयंभू लिंग भी उत्पन्न हुआ जिसकी ॠषियों ने बागीश्वर रुप में अराधना की । बागेश्वर के सुनहरे अतीत में ही उत्तरायण का भी गौरवमय पृष्ठ है । प्राप्त प्रमाणों के आधार पर माना जाता है कि चंद वंशीय राजाओं के शासनकाल में ही माघ मेले की नींव पड़ी थी । बागेश्वर की समस्त भूमि का स्वामित्व था । भूमि से उत्पन्न उपज का एक बड़ा भाग मंदिरों का रख-रखाव में खर्च होता था। चंद राजाओं ने ऐतिहासिक बागनाथ मंदिर में पुजारी नियुक्त किये । तब शिव की इस भूमि में कन्यादान नहीं होता था। मेले की सांकृतिक और धार्मिक पृष्ठभूमि का स्वरुप संगम पर नहाने का था । मकर स्नान एक महीने का होते था । सरयू के तट को सरयू बगड़ कहा जाता है । सरयू बगड़ के आक-पास स्नानार्थी माघ स्नान के लिए छप्पर डालना प्रारंभ कर देते थे । दूर-दराज के लोग मोहर मार्ग के अभाव में स्नान और कुटुम्बियों से मिलने की लालसा में पैदल रास्ता लगते । बड़-बूढ़े बताते हैं कि महीनों पूर्व से कौतिक में चलने का क्रम शुरु होता । धीरे-धीरे स्वजनों से मिलने के आह्मलाद ने हुड़के का थाप को ऊँचा किया । फलस्वरुप लोकगीतों और नृत्य की महफिलें जमनें लगीं . हुड़के की थाप पर कमर लचकाना, हाथ में हाथ डाल स्वजनों के मिलने की खुशी से नृत्य-गीतों के बोल का क्रम मेले का अनिवार्य अंग बनता गया । लोगों को आज भी याद है उस समय मेले की रातें किस तरह समां बाँध देती थी । प्रकाश की व्यवस्था अलाव जलाकर होती । काँपती सर्द रातों में अलाव जलते ही ढोड़े, चांचरी, भगनौले, छपेली जैसे नृत्यों का अलाव के चारों ओर स्वयं ही विस्तार होता जाता । तब बागेश्वर ही मेले में नृत्य की महफिलों से सजता रहता । दानपुर और नाकुरु पट्टी की चांचली होती । नुमाइश खेत में रांग-बांग होता जिसमें दारमा लोग अपने यहाँ के गीत गाते । सबके अपने-अपने नियत स्थान थे । नाचने गाने का सिलसिला जो एक बार शुरु होता तो चिड़ियों के चहकने और सूर्योदय से पहले खत्म ही नहीं होता । परम्परागत गायकी में प्रश्नोत्तर करने वाले बैरिये भी न जाने कहाँ-कहाँ से इकट्ठे हो जाते । काली कुमाऊँ, मुक्तेश्वर, रीठआगाड़, सोमेश्वर और कव्यूर के बैरिये झुटपूटा शुरु होने का ही जैसे इन्तजार करते । इनकी कहफिलें भी बस सूरज की किरणें ही उखाड़ पातीं । कौतिक आये लोगों की रात कब कट जाती मालूम ही नहीं पड़ता था ।