पुण्यतिथि विशेष: सरलता और सादगी के अवतार देशरत्न भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की पुण्यतिथि पर विशेष

आजाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति, संत, देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने भी बिहार की  राजधानी पाटलिपुत्र और अब पटना में नाम से जानी जाने वाली भूमि को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। बिहार के पटना से 80 किलोमीटर की दूरी पर उत्तरपूर्व में एक स्थान है छपरा, इसी छपरा से करीब 70 किलोमीटर दूर पुराने सारण जिले का गांव जीरादेई है। ये वही जगह है जहां 1884 में सरलता और सादगी के अवतार राजेन्द्र बाबू का जन्म हुआ।

कुछ ऐसा रहा शुरुआती जीवन….

शिक्षा की अगर बात करें तो डॉ. राजेन्द प्रसाद शुरू से ही एक प्रतिभाशाली छात्र रहे, उन्होंने 1902 में प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया और 1905 में प्रथम श्रेणी के साथ स्नातक की उपाधि हासिल की। 1908 में उन्होंने बिहारी छात्र सम्मेलन के गठन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह पूरे भारत में अपनी तरह का पहला संगठन था। इसके बाद कलकत्ता  विश्वविद्यालय से उन्होंने 1907 में, अर्थशास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री प्राप्त की। उन्हें उस दौरान स्वर्ण पदक भी मिला। पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद, बिहार के एक कॉलेज में बतौर अंग्रेजी के प्रोफेसर पढ़ाने लगे और बाद में वह इसके प्राचार्य भी बने। 1909 में वह नौकरी छोड़ लॉ की डिग्री हासिल करने के लिए कलकत्ता गए।  मास्टर्स इन लॉ के बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से लॉ में डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की।

लगातार दो बार चुने गए राष्ट्रपति के रूप में

1946 में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार में डॉ. राजेंद्र प्रसाद को खाद्य और कृषि मंत्री के रूप में चुना गया। कुछ महीनों बाद उसी साल 11 दिसंबर को उन्हें संविधान सभा का अध्यक्ष चुन लिया गया। उन्होंने 1946 से 1949 तक संविधान सभा की अध्यक्षता की और भारत के संविधान को बनाने में मदद की। 26 जनवरी 1950 को, भारतीय गणतंत्र अस्तित्व में आया और डॉ राजेंद्र प्रसाद देश के पहले राष्ट्रपति चुने गए। इसके बाद, 1952 और 1957 में वह लगातार 2 बार चुने गए, और यह उपलब्धि हासिल करने वाले राजेन्द्र बाबू भारत के एकलौते राष्ट्रपति बने रहे।

पहले भत्ता बन्द करवाया फिर वेतन भी घटवाया

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की राजनीतिक चेतना महात्मा गांधी से बहुत प्रभावित थी। वह इस तरह प्रभावित हुए कि उन्होंने गांधी जी की ही तरह सादा और सरल जीवन जीने का निर्णय लिया।
जब वह भारत के राष्ट्रपति बने तो उनका मासिक वेतन दस हजार रुपये था। साथ ही उन्हें दो हजार रुपयों का मासिक भत्ता भी दिया जाता था, यह अतिथियों के स्वागत-सम्मान पर खर्च करने के लिए दिया जाता था। कुछ समय बाद राजेन्द्र बाबू ने पहले अपना भत्ता बंद करवाया और फिर वेतन को भी उन्होंने स्वेच्छा से दस हजार से घटाकर पहले छह हजार, फिर पांच हजार और आखिर में ढाई हजार कर दिया। उनका कहना था कि मैं एक निर्धन देश का राष्ट्रपति हूं, इसलिए मैं अपने लोगों की इस मोटी रकम को कबूल नहीं कर सकता।

14 मई, 1962 को उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दिया

14 मई, 1962 को उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दिया और पटना लौट आए। 1962 में उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार “भारत रत्न” से सम्मानित किया गया। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम कुछ महीने पटना के सदाकत आश्रम में बिताए। सरलता, विनम्रता और निश्छलता की प्रतिमूर्ति राजेन्द्र बाबू का निधन 28 फरवरी  वर्ष  1963 में हो गया।