आज 14 जनवरी है। आज मकर संक्रांति का त्योहार है। हिन्दुओं के सबसे पवित्र धार्मिक आयोजनों में से एक मकर सक्रांति भी है। मकर संक्रान्ति के दिन से ही माघ महीने की शुरुआत भी होती है। मकर संक्रान्ति का त्यौहार पूरे भारत में बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है लेकिन देश के अलग अलग हिस्सों में ये त्यौहार अलग अलग नाम और तरीके से मनाया जाता है। और इस त्यौहार को उत्तराखण्ड में “उत्तरायणी” के नाम से मनाया जाता है।
मकर संक्रान्ति का महत्व-
शास्त्रों के अनुसार ऐसी मान्यता है कि इस दिन सूर्य (भगवान) अपने पुत्र शनि से मिलने उनके घर जाते हैं। अब ज्योतिष के हिसाब से शनिदेव हैं मकर राशि के स्वामी, इसलिये इस दिन को जाना जाता है मकर संक्रांति के नाम से। सर्वविदित है कि महाभारत की कथा के अनुसार भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति का ही दिन चुना। यही नहीं, कहा जाता है कि मकर संक्रान्ति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थी। यही नहीं इस दिन से सूर्य उत्तरायण की ओर प्रस्थान करते हैं, उत्तर दिशा में देवताओं का वास भी माना जाता है। इसलिए इस दिन जप-तप, दान- स्नान, श्राद्ध-तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है। ऐसी भी मान्यता है कि इस अवसर पर दिया गया दान सौ गुना बढ़कर पुन: प्राप्त होता है।
कुमाँऊ में मकर संक्रान्ति का महत्व :
कुमाँऊ के गाँव-घरों में घुघुतिया त्यार (त्यौहार) से सम्बधित एक कथा प्रचलित है। ऐसा कहा जाता है कि किसी एक राजा का घुघुतिया नाम का कोई मंत्री राजा को मारकर खुद राजा बनने का षड्यन्त्र बना रहा था लेकिन एक कौव्वे को ये पता चल गया और उसने राजा को इस बारे में सब बता दिया। राजा ने फिर मंत्री घुघुतिया को मृत्युदंड दिया और राज्य भर में घोषणा करवा दी कि मकर संक्रान्ति के दिन राज्यवासी कौव्वों को पकवान बना कर खिलाएंगे, तभी से इस अनोखे त्यौहार को मनाने की प्रथा शुरू हुई। हिन्दू कलेंडर के अनुसार मकर सक्रांति सूर्य के कर्क राशि से मकर राशि में प्रवेश करने के उपलक्ष्य में मनाई जाती है। इस दिन को ऋतु परिवर्तन के रूप मे देखा जाता है। माना जाता है कि मकर सक्रांति के दिन से सूर्य धीरे-धीरे उत्तर दिशा की ओर बढ़ना शुरू हो जाता है। धीरे-धीरे दिन बड़े होने लगते हैं और गर्मी भी बढ़ने लगती है। इसके साथ प्रवासी पक्षी भी वापस पहाड़ों के ठंडे इलाकों की ओर रुख करते हैं। उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में इसे ‘उत्तरायणी’ और ‘घुघती सज्ञान’ के नाम से भी जाना जाता है, जबकि गढ़वाल में ‘खिचड़ी सक्रांति’ कहा जाता है। इस दिन यहां जगह-जगह मेलों का आयोजन होता है।
घर घर में बनाए जाते है आटे के घुघुत-
इस अवसर में घर घर में आटे के घुघुत बनाये जाते हैं और अगली सुबह को कौवे को दिये जाते हैं (ऐसी मान्यता है कि कौवा उस दिन जो भी खाता है वो हमारे पितरों (पूर्वजों) तक पहुँचता है)। कुमाऊं में इस दिन आटे की घुघुत, खजूर आदि बनाए जाते हैं, जबकि गढ़वाल में खिचड़ी खाने और दान देने का रिवाज है। कुमाऊं में कौवे को घुघुत खिलाने का रिवाज है और इसके लिए कौवे को ‘काले कौवा काले, घुघती माला खाले’ गाकर बुलाया जाता है। आटे में सौंफ, गुड आदि इससे अलग-अलग आकार बनाए आते हैं और कुछ देर सुखाकर घी में तल लिया जाता है, इन्हें ही घुघुत कहते हैं। बच्चे घुघुत की माला बनाकर और उसे गले में डालकर गांव भर में घूमते-फिरते हैं। गढ़वाल में इस दिन उड़द दाल की खिचड़ी बनायी जाती है और पंतंग उड़ाने का रिवाज भी है। इस दिन ब्राह्मणों को उड़द दाल और गांव भर में घूमते-फिरते हैं। इस दिन ब्राह्मणों को उड़द दाल और चावल दान करने का रिवाज भी गढ़वाल में है। गांवों में इसे चुन्निया त्योहार भी कहा जाता है, जहां इस दिन खास किस्म के आटे से मालपुवे (चुन्निया) बनाए जाते हैं।
कुमाँऊ में अगर आप मकर संक्रान्ति में चले जायें तो आपको शायद कुछ ये सुनायी पड़ जाय-
काले कौव्वा काले, घुघूती माला खा ले।
ले कौव्वा पूड़ी, मैं कें दे ठुल-ठुलि कूड़ी,
ले कौव्वा ढाल, दे मैं कें सुणो थाल,
ले कौव्वा तलवार, बणे दे मैं कें होश्यार।
साथ में दिखायी देंगे गले में घुघुत की माला पहने हुए छोटे-छोटे बच्चे, जिसमें वे डमरू, तलवार, ढाल, जांतर (घर में आटा पीसने के लिए एक छोटा सा पत्थर का घराट जो अब विलुप्त सा होने लगा है ) भी पिटोये रहते हैं ।
यहां लगते हैं उत्तरायणी मेले-
यही नहीं मकर संक्रान्ति या उत्तरायणी के इस अवसर पर उत्तराखंड में नदियों के किनारे जहाँ तहाँ मेले लगते हैं। इनमें दो प्रमुख मेले हैं- बागेश्वर का उत्तरायणी मेला (कुमाँऊ क्षेत्र में) और उत्तरकाशी में माघ मेला ( गढ़वाल क्षेत्र में) । बागेश्वर का उत्तरायणी मेला तो दुनियाभर में प्रसिद्ध है। बागेश्वर के अलावा हरिद्वार, रुद्रप्रयाग, पौड़ी और नैनीताल जिलों में भी उत्तरायणी मेलों की रौनक देखने लायक होती है।