कहाँ होती है?
लड़कों की जिंदगी आसान
दबे रहते हैं बिचारे जिम्मेदारियों के बोझ से।
जन्म से लेकर बाल पकने तक,
उठाते हैं पहाड़ भरी जिम्मेदारियों को।
जन्म से ही कहते हैं बड़े बुजुर्ग
पैदा होगा बेटा तो चिराग बनेगा!
संभालेगा घर।
संभालेगा हमें,
और बुढ़ापे की
लाठी बनेगा।
बालकपन से ही करते हैं,
मीलों तय का सफर तय।
जाते हैं बाजार
सिर पर आटे और चावल से भरे हुए
रख लाते हैं भारी-भरकम कट्टे।
खोदने जाते हैं मालखेत,तालखेत,
मलसारी, तलसारी के धान के खेतों को।
पानी लाने की जुगत में निकल पड़ते हैं
बिचारे सुबह सुबह।
कंधे में कुल्हाड़ा अटकाए,
हाथों में रस्सा धर,
निकल पड़ते हैं-
बांज-उतीस के जंगल…
दिन भर थककर,
काटते हैं लकड़ियां।
गठ्ठर भर ले आते हैं घर,
ये सिकन लिए हुए लड़के।
घर छोड़कर निकल पड़ते हैं
पढ़ने लिखने।
गांव से शहरों की ओर।
सुबह-शाम इनके लिए नहीं होती,
ये भागमभाग करते हैं,
मालगाड़ियों की तरह।
दिन-रात लगे रहते हैं-
पार्ट टाइम नॉकरी
पेट भरने के जुगाड़ में
दिख जाते हैं ये,
दुकानों में झाड़ झड़ते हुए,
डिश एंटीना फिट करते हुए
आटा चावल तोलते हुए।
मार्ट में कैश काउंटर संभालते हुए….
दूध की डेरी से लेकर होटल,रेस्टोरेंट तक
ये लड़के पेट पालने को लेकर करते हैं भारी श्रम।
सांझ होते ही
थका हुआ चेहरा लेकर
लौट पड़ते हैं अपने डेरों को।
और रात भर खोए रहते हैं ये
किताबों की दुनिया में।
इन्हें नहीं लगती भूख भी
ये मशीन की तरह लगे रहते हैं
दिन भर काम करते हुए।
इनके चेहरे रहते हैं खिले हुए
लेकिन इनके मस्तक पर खींची हुई चिंता की लकीरें
और इनकी दुर्बल काया सुना देती है,
इनके संघर्षों की गाथा।
इनके लिए नहीं होती,
होली, दिवाली, करवाचौथ।
ये फिर भी भागते हैं घर से ऑफिस,
ऑफिस से घर।
सूरज के उगने से लेकर ढलने तक,
ये बन जाते हैं मशीन
बिचारे उम्र भर झुके रहते हैं,
लदे हुए फलदार वटों की तरह…!
©
डॉ. ललित योगी