आज 16 सितंबर है। आज खतड़वा पर्व है। खतड़वा पर्व मुख्यतः शीत ऋतु के आगमन के प्रतीक जाड़े से रक्षा की कामना तथा पशुओं की रोगों और ठंड से रक्षा की कामना के रूप में मनाया जाता है। पहाड़ो में सितम्बर महीने से ही ठण्ड पड़नी शुरु हो जाती है, और गर्म बिस्तर (खातड़) वगैरह उपयोग में लाया जाना शुरू किया जाता है, इसलिए एक प्रकार से पहाड़ो में शरद ऋतू के आगमन का प्रतीक भी है खजायेगा। 2024 में खतड़वा त्यौहार 16 सितम्बर 2024 को कन्या संक्रांति के दिन मनाया जायेगा।
खतड़वा पर्व
‘खतड़ुवा’ पर्व पशुओं की मंगलकामना के लिये मनाया जाने वाला पर्व है। इसे लेकर कई किस्से जोड़ दिए गए हैं। अन्य आधार पर न देखकर इसे केवल पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले जन मानस की वार्षिक गौशाला ‘गोठ’ व्यवस्था की लोक परंपरा के रूप में भी देखा जा सकता है। खतड़ुवे के साथ ही पहाड़ों में ठंड धीरे-धीरे शुरू हो जाता है। इस तरह यह लोक पर्व वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद शीत ऋतु के आगमन का प्रतीक भी है।
अश्विन संक्रांति को मनाया जाता है खतरूवा पर्व-
खतरूवा पर्व प्रत्येक वर्ष अश्विन संक्रांति को मनाया जाता है। अश्विन मास में पहाड़ों में खेती के काम की मार पड़ी रहती है। खतड़वा के दिन सुबह साफ सफाई, देलि और कमरों की लिपाई की जाती है। दिन में पूजा पाठ करके, पारम्परिक पहाड़ी व्यजंनों का आनन्द लेते हैं। क्योंकि अश्विन में काम ज्यादा होने के कारण , घर मे बड़े लोग काम मे बिजी रहते हैं। और खतड़वा के डंक ( डंडे जिनसे आग को पीटते हैं ) बनाने और सजाने की जिम्मेदारी घर के बच्चों की होती है। घर मे जितने आदमी होते है ,उतने डंडे बनाये जाते हैं। उन डंडों को कांस की घास के साथ उसमे अलग अलग फूलों से सजाते हैं। खतरूवा के डंडों के लिए, कास की घास और गुलपांग के फूल जरूरी माने जाते हैं। महिलाये गाय के गोशाले को साफ करके वहाँ नरम नरम घास डालती है। और गायों को आशीष गीत गाकर खतड़ुवा की शुभकामनायें देती हैं। खतड़वा, भैलो मनाने का, चीड़ के लकड़ी की मशाल छिलुक जला कर ,खतड़वा के डंडों को गौशाले के अंदर से घुमा कर लाते हैं,और यह कामना की जाती है, कि आने वाली शीत ऋतु हमारे पशुओं के लिए अच्छी रहे और रोग दोषों से उनकी रक्षा हो। उसके बाद डंडों को लेकर और साथ मे ककड़ी भी लेकर उस स्थान पर पहुँचा जाता है, जहाँ सुखी घास रखी होती है। उसके बाद सुखी घास में आग लगाकर ,उसे डंडों से पीटते हैं। और कुमाऊनी भाषा मे ये खतरुआ पर गीत गाये जाते हैं।
” भैलो खतड़वा भैलो ।
गाई की जीत खतड़वा की हार।
खतड़वा नैहगो धारों धार।।
गाई बैठो स्यो। खतड़ु पड़ गो भ्यो।।”
फिर घर के सभी सदस्य खतडुवा, की आग को पैरों से फेरते हैं। इसके लिए कहा जाता है। कि जो खतरूवा कि आग को कूद के ,या उसके ऊपर पैर घुमाकर फेरता है, उसे ठंड मौसम परेशान नही करता। खतड़वे कि आग में से कुछ आग घर को लाई जाती है। जिसके पीछे भी यही कामना होती है,की नकारात्मक शक्तियों का विनाश और सकारात्मकता का विकास । उसके बाद पहाड़ी ककड़ी काटी जाती है। थोड़ी आग में चढ़ा कर ,बाकी ककड़ी आपस मे प्रसाद के रूप में बांट कर खाई जाती है। सबसे विशेष प्रसाद में कटी हुई पहाड़ी ककड़ी के बीजों का खतड़वा के दिन तिलक किया जाता है। अर्थात खतडुवा पर्व पर ककड़ी के बीजों को माथे पर लगाने की परम्परा होती है। किसी किसी गावँ में तो , खतरूवा मनाने के लिए विशेष चोटी या धार होती है,जिसे खतडूवे धार भी कहते हैं।