March 28, 2024

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Aawaj Aap Ki

डॉ ललित चंद्र जोशी की स्वरचित कविता, जंगल जल रहे हैं

जंगल भस्म हो रहे हैं
खाक हो रही हैं-
नाना वनस्पतियां, कीट-पतंगे
हो रहा है-धुआँ धुआँ

यहां वहां जहां तहाँ
सूख रहे हैं-नौला,धारे,गाड़-गधेरे
गांववासी सिर्फ बना रहे हैं सिर्फ अपनी मांग
कि लपटें हराम तक न पहुंचे
विभाग अचेत हैं और विभागी थके थके से
पर्यावरण संरक्षण को लेकर बनीं संस्थाएं
लाइव आ चुकी हैं-एफबी , इंस्टा पर
जलते हुए जंगलों को बुझाने के लिए
ये संस्थाएं कर रही हैं-
आग बुझाने का बारम्बार विज्ञापन
अखबार भरे पड़े हैं जंगलों की आग से
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ले रही हैं-बाइट्स
और विभाग के आला अफसर
बना रहे  हैं ब्यौरा
आग से हुए नुकसान का।

शासन दे रही है करोड़ों की मदद
फिर भी जंगल जल रहे हैं!
हर साल जंगलों के जलने से
करोड़ों की ग्रांट पहुंचने तक
होता है – हुड़दंग, नारेबाजी,
किन्तु
न तो जंगलों के जलना बन्द हुआ
और न ही जंगल जलाने वालों की कुर्की हुई
न लाखों की ग्रान्ट ही बंद हुई
और न ही जंगलों की सिसकी कम हुई।

डॉ ललित चंद्र जोशी
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग