हिंदी साहित्य भारती, दिल्ली के द्वारा ‘हिंदी साहित्य तथा मीडिया का नव विमर्श‘ विषय पर राष्ट्रीय तरंग गोष्ठी आयोजित की गई। इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो0 भगवती प्रकाश शर्मा, अध्यक्ष रूप में पूर्व शिक्षा मंत्री डाॅ0 रवींद्र शुक्ल, मुख्य वक्ता रूप में डाॅ0 राकेश कुमार दुबे, डाॅ0 आलोक रंजन पाण्डे, श्री लक्ष्मी नारायण भाला, संगोष्ठी की मुख्य समन्वयक एवं संयोजिका प्रो0 माला मिश्रा, हिंदी साहित्य भारती के प्रदेश अध्यक्ष डाॅ0 रमा, महामंत्री डाॅ0 राम जी दुबे, संगठन मंत्री श्री वीरेंद्र शर्मा आदि शामिल हुए।
पिछले एक दशक में हिंदी मीडिया ने अनुशासन के साथ अपने को स्थापित किया है।
संगोष्ठी की शुरुआत मनोज कुमार मिश्रा के वंदना गीत‘ उस भरत भू की वंदना, हे भर भू पद वंदना‘ से हुई। इसके बाद मुख्य वक्ता के रूप में आईआईएमटी के जर्नलिज्म के शिक्षक डाॅ0 राकेश कुमार दुबे ने कहा कि साहित्य जगत में प्रारंभिक दौर से ही विमर्श रहा है। चाहे स्वतंत्रता का दौर रहा हो या चाहे स्वतंत्रता के उपरंात का दौर रहा हो, इन दौरों में तत्कालीन साहित्यकारों ने विमर्श आरंभ किया था। बड़ी बेवाकी से वह सामाजिक मुद्दों पर विमर्श प्रकाशित करते थे। उस समय के साहित्यकार हजारी प्रसाद द्विवेदी, राम चंद्र शुक्ल आदि ने अपनी साहित्यिक लेखनी के माध्यम से विमर्श को दिशा दी। उन्होंने कहा कि पिछले एक दशक में हिंदी मीडिया ने अनुशासन के साथ अपने को स्थापित किया है। औद्योगिक क्रांति के बाद सूचना एवं प्रौद्योगिकी ने विमर्श को नए स्वरूप में प्रस्तुत किया है। सूचना क्रांति के उपरांत व्यापक तौर पर विमर्श हुआ है। इंटरनेट के आगमन से चेतना विकसित हुई है। लोगों को आपस में जुड़ने का और चिंतन करने का मौका मिला है। सूचना क्रांति ने व्यापार, वाणिज्य, शिक्षा, चिकित्सा, मनोरंजन के क्षेत्र को बहुत प्रभावित किया है। उन्होंनेे कहा कि हिंदी साहित्य के प्रारंभिक दौर में विभिन्न मुद्दों को लेकर विमर्श हुआ है। सूचना प्रौद्योगिकी की उपस्थिति ने यह संदेश दिया है कि हम सोये नहीं हैं। समाज को अंधकार से प्रकाश की ओर, हिंदी साहित्य ले गया है। उन्होंने साहित्य के स्वर्णिम दौर की बात कर कहा कि भारतीय समाज जिस सशक्तता के साथ खड़ा रहा है, उसका विमर्श कमजोर हो ही नहीं सकता। हमारे हिंदी साहित्यकारों ने विमर्श को सामने रखा था। प्रारंभिक दौर के हिंदी साहित्यकारों ने साहित्य के माध्यम से विमर्श को लेकर लेखनी दौड़ाई। उन्होंने समाज को जोड़ा है। उन्होंने समाज के यथार्थ पर चिंतन किया है, विमर्श किया है। साहित्य ने राष्ट्रीयता को स्वर दिये हैं। साहित्य ने हमेशा विमर्श किया है। महिला, आदिवासी, पर्यावरण आदि मुद्दे प्रारंभिक दौर के साहित्य में आज भी दिखाई पड़ते हैं। वह प्रारंभिक दौर से ही सजग रहा है। अब भी भारतीयता, भारतीयता की चेतना, नवजागरण की चेतना, राष्ट्र सर्वोपरि, राष्ट्रीयता को बोध जैसी बातें मीडिया में जोर-शोर से उठ रही हैं, जो सराहनीय है। वर्तमान में सूचना प्रौद्योगिकी ने विमर्श को धार दी है। आज की मीडिया जल, जंगल, जमीन से जुड़ी है। वह जिम्मेदारी से काम कर रही है। आज पत्रकार ग्राउंड जीरो में जाकर कृषि आदि की खबरों को रिपोर्ट कर रहा है। हालांकि मीडिया और मीडियाकर्मी इसे केवल इसे फैशन न बनाएं। साहित्य और मीडिया, दोनों ही समाज के प्रति जिम्मेदारियां निभा रहे हैं। उन्होंने कहा कि इंटरनेट, सूचना एवं प्रौद्योगिकी, सोशल मीड़िया ने समाज को सकारात्मक चिंतन दिया है। उसने विमर्श दिया है।
ब्रिटिश हुकूमतों ने भारतीयों की रोटी छीनी है
इस अवसर पर मुख्य वक्ता डाॅ0 आलोक रंजन पाण्डे ने कहा कि भारत में सभी हमारी रोटी से खेले हैं। ब्रिटिश हुकूमतों ने भारतीयों की रोटी छीनी है। हर किसी शासक यहां के लोगों की रोटियां छीनने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने राष्ट्र को समझने के लिए भूगोल, संस्कृति और लोग (लोक) को समझना आवश्यक बताया। उन्होंने कहा कि हमारी सांस्कृति, सभ्यता, ज्ञान, सबसे अलग हैें। विश्व में इसकी एक अलग ही पहचान है। यह समाज में प्रबुद्ध लोगों के कारण ही फैला है। उन्होंने कहा कि प्रबुद्ध लोगों का चिंतन, मनन और विचार करते हैं, तो वह विमर्श ही है। मीडिया अब पैसों के लिए कार्य करने लगा है। उसे विमर्श से कोई लेना-देना नहीं है। साहित्य भी अपनी मूल भावना से विमुख हुआ है। इसका एक कारण है कि इन दोनों क्षेत्रों में गलत लोगों का घुस आ गए हैं। मीडिया में धन कमाने की लालसा और साहित्य में लोगों को अपनी तरफ खींचने के लिए लेखन किये जाने से दोनों में ही विमर्श गायब हो गया है। उन्होंने कहा कि सन् 1926 में जब समाचार पत्र निकले, तब विमर्श उन पत्रों में जिंदा था, क्योंकि उन पत्रों में यथार्थ था। समाज का सच था। वहीं प्रारंभिक दौर के मीडिया में सत्य था, जो वर्तमान में नहीं दिखता। अब का मीडिया विमर्श नहीं ला रहा है। उन्होंने कहा कि जब यथार्थ नहीं होगा तो विमर्श कहां से आएगा। अब हाशिए पर लाए गए विषयों को विमर्श बनाया जा रहा है और हाशिए पर जबरदस्ती कौन मुद्दे लेकर आ रहे हैं, यह देखने का विषय है। उन्होंने कहा कि वामपंथी-दक्षिणपंथी विमर्श को तय करने लगे हैं, जबकि विमर्श के मुद्दे ऐसे नहीं होते। उन्होंने साहित्य और मीडिया को जिम्मेदारी से अपने दायित्वों का निर्वह्न करने और विमर्श करने की बात कही।
कुलपति प्रो0 भगवती प्रकाश शर्मा ने अपने वक्तव्य में यह कहा
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो0 भगवती प्रकाश शर्मा ने अपने वक्तव्य मंे कहा कि समाज जिस चीज को देखकर आकर्षित हो जाएं, वैसा विषय फिल्म, सीरियल, मीडिया में लाकर परोसा जा रहा है। सीरियलों में विवाह विच्छेदन के जितने दृश्य दिखाए जाते हैं समाज में उससे कई गुना ज्यादा विवाह विच्छेदन के उदहारण दिखाई देते हैं। सीरियल में लड़ने, झगड़ने, तलाक, पुनर्विवाह से संबंधित दृश्य, जिस अनुपात में दिखाया जाते हैं, वह युवाओं, बच्चों के मन-मस्तिष्क पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। छोटे बच्चे भी कम उम्र मेें होकर इन सीरियलों को देखते हुए युवा होने तक यही देखते हैं, जिससे उनका मन-मस्तिष्क प्रभावित होता है। नवीन पीढ़ी में इस तरीके के सीरियल दुष्प्रभाव डालते हैं। यह समाज का विमर्श ही है। यह समाज का सच ही है। अब युवा पीढ़ी भी उसी का अनुसरण कर रहा है। वह भी विवाह विच्छेदन, तलाक और फिर शादी को ही हल समझते हैं। उनके लिए यह सब करना आसान हो गया है। उन्होंने कहा कि साहित्य में ऐसे लेखक घुस गए हैं, जो अतिकल्पनावादी हैं और जो कल्पनाओं में लिख देते हैं। उनका लिखा हुआ हमारा युवा, हमारा पाठक वर्ग भी अनुसरण करता है। वह उन बातों को अपनाने लगते हैं। अतिकल्पना व अति यथार्थवाद हानिकारक है। विकृतियों को महामंडन किया जा रहा है। उनके प्रति युवा व बालक आकर्षित हो जाते हैं। साहित्य व मीडिया, आने वाले समय में समाज-जीवन के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। दोनों को ही जिम्मेदारी से काम करने की आवश्यकता है। आज जो बिकता है वो साहित्यकार लिख रहा है और सीरियल में वहीं दिखाया जा रहा है, जो जनता को आकर्षित कर सके। हमें इससे आगे बढ़ना होगा और आत्मसंयम बरतना होगा। उन्होंने कहा कि मीडिया, फिल्म, सीरियल आदि में वह नहीं परोसा जाना चाहिए, जिसको समाज स्वीकार न करे। संचार माध्यमों में आज मानदंड स्थापित किए जाने की आवश्यकता है। फिल्म, घटना उस अनुपात से अधिक नहीं दिखाए जाने चाहिए। अन्यथा उसके घातक परिणाम देखने को मिलते हैं। संचार माध्यमों के लिए यदि कानून भी बनाने की जरुरत है तो यह मांग हमें करनी चाहिए। आज समाज को आदर्श लेखक, आदर्श पत्रकारों की आवश्यकता है। उन्होंने मीडिया व साहित्य, दोनों को सामाजिक स्वीकारोक्ति विषयों को प्रसारित, प्रकाशित करने की अपील की ।
आज मीडिया जबरदस्ती चतुर्थ स्तम्भ बनने की होड़ में लगा है
इस अवसर पर विद्या भारती के श्री लक्ष्मी नारायण भाला ने कहा कि आज मीडिया जबरदस्ती चतुर्थ स्तम्भ बनने की होड़ में लगा है, तभी मीडिया में रस्खलन देखने को मिल रहा है जबकि उसे स्तम्भ बनने की होड़ से बचना चाहिए। तीनों स्तंभों की विकृतियों को सुधारने की भूमिका उसे निभानी चाहिए। साहित्य को दर्पण और मार्गदर्शक की भूमिका निभानी चाहिए। उन्होंने कहा कि ड्रग्स के कारण समाज में विकृति आई है। युवा बर्बाद हो रहे है। युवा इसके प्रभाव में पड़ चुके हैं। यदि मीडिया आदि में इनसे बचने के लिए सही से सूचनाएं नहीं परोशी जाएगी तो समाज में विकार उत्पन्न होंगे। मीडिया में इन सभी को इस तरीके से प्रसारित किया है कि युवा इनके आदि हो जाते हैं। उन्होंने यथार्थ चित्रण करने की सलाह दी और कहा कि मीडिया की भूमिका आज महत्वपूर्ण है। आज मीडिया के गंदे कारनामों को देखकर समूचे मीडिया पर प्रश्नचिन्ह खड़े हो रहे हैं। मीडिया निरपेक्ष्य होकर नजर रखे। तभी उसकी छवि सुधरेगी। स्वाधीनता ही मीडिया का लक्ष्य हो। साहित्य एवं मीडिया, दोनों का नवाचार ही समय की मांग है। उसी के माध्यम सें विमर्श दिखने लगेगा। उन्होंने भारतीय संस्कृति, भाषा, समाज के चरित्र को सही से उद्घाटित करने की बात कही और कहा कि मीडिया एवं साहित्य समाज पर विमर्श करें।
शिक्षा पद्धति अर्थकेंद्रित हो गई हैै
कार्यक्रम में अध्यक्षता करते हुए हिंदी साहित्य भारती के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष एवं पूर्व शिक्षा मंत्री श्री रवींद्र शुक्ला ने कहा कि जैसा इतिहास हमें पढ़ाया जाता है वह इतिहास नहीं है। उसे तोड़ा-मरोड़ कर हमारे जेहन में डाल दिया गया है। ब्रिटिशों ने अपने हित में बातें लिखी हैं। उन्होंने भ्रम फैलाने वाला इतिहास लिखा है। अंगे्रजों ने कोई सही बात नहीं लिखी हैं और हमारे इतिहासकार उनको इतिहास मानकर हमें पढ़ा रहे हैं, प्रस्तुत कर रहे हैं। भारतीय इतिहास, भारतीय संस्कृति को ब्रिटिश ताकतों ने कमजोर किया है। सुनियोजित तरीके से ये सब किया गया है। शिक्षा पद्धति को भी ब्रिटिशों ने पैसा कमाने की नियत ने बनाया था। जिस पर अभी भी कार्य किए जाने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि शिक्षा पद्धति अर्थकेंद्रित हो गई हैै, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए था। हमारे देश में जिन्होंने स्वतंत्रता दिलवाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दी है, उनको हमारे इतिहासकारों ने भुला दिया है। उनका जिक्र हमारे इतिहास की पुस्तकों में नहीं आता है। उन्होंने अच्छाई को सामने लाने के लिए मीडिया एवं साहित्य को पे्ररित किया। साथ ही कहा कि आज पैसा कमाने की प्रवृत्ति जागी है। उन्होंने हिंदी साहित्य भारती के कार्यों पर विस्तार से बात रखी। उन्होंने कहा कि हिंदी साहित्य भारती राष्ट्रीयता, भाषा, संस्कृति को लेकर कार्य करती है। उन्होंने सभी से जुड़ने का अनुरोध किया।
इस अवसर पर गोष्ठी की संचालिका प्रो0 माला मिश्रा ने संगोष्ठी की रूपरेखा प्रस्तुत की
इस अवसर पर संयोजिका और गोष्ठी की संचालिका प्रो0 माला मिश्रा ने संगोष्ठी की रूपरेखा प्रस्तुत की। उन्होंने मीडिया और साहित्य के संदर्भ में कहा कि दोनों का ही दायित्व है कि वो निःष्पक्ष होकर विमर्श करे। वह सच को उद्घाटित करे। सकारात्मक माहौल बनाए। समाज की नींव साहित्य एवं मीडिया पर ही टिकी है। इन दोनों को ही जिम्मेदारी से समाज को दिशा निर्देश देने के लिए कार्य करना होगा।
संगोष्ठी में प्रो0 रमा ने आभार और श्री राम जी लाल दुबे ने कल्याण मंत्र का उच्चारण कर गोष्ठी का समापन किया।
यह गोष्ठि में इतने लोगों ने की भागीदारी
इस राष्ट्रीय गोष्ठी में प्रतिभा शाह, डाॅ0 संगीता, डाॅ0 राजलक्ष्मी कृष्णन, डाॅ0 ललित चंद्र जोशी, डाॅ0 वसुंधरा उदयसिंह जाघव, कल्पना शाह, प्रभात द्विवेदी, रोहिता रौत, सरिता वर्मा, डाॅ0 मधु वर्मा, डाॅ0 कोयल विश्वास, लक्ष्मी नारायण भाला, सीमा जोधावत, डाॅ0 संगीता, रीतू माथुर, डाॅ0 सुशीला व्यास, सीमा मिश्रा, डाॅ0 रोहिता आदि दर्जनों प्रतिभागियों ने भागीदारी की।
रिपोर्टः
लेखक- डाॅ0 ललित चंद्र जोशी
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग,
सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय, अल्मोड़ा (उत्तराखंड)