March 29, 2024

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वीर शिरोमणि, महान योद्धा महाराणा प्रताप की जयंती आज, जाने इनसे जुड़ी खास बातें

वीर शिरोमणि, महान योद्धा महाराणा प्रताप का जन्म राजस्थान के कुम्भलगढ़ दुर्ग में 9 मई 1540 (ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि) को हुआ था। इनके पिता का नाम महाराणा उदय सिंह और माता का नाम राणी जयवंत कंवर था। उनका जन्म सिसोदिया वंश में हुआ था। महाराणा प्रताप, राणा सांगा के पौत्र थे। महाराणा को बचपन में सब लोग ‘कीका’ कहकर बुलाते थे। मालूम हो कि कुम्भलगढ़ विश्व की प्रचीनतम पहाड़ियों की श्रृंखला अरावली की ही एक पहाड़ी पर स्थित है। महाराणा प्रताप का पालन-पोषण भीलों की एक जाति ‘कूका’ ने किया था। भील राणा प्रताप से बहुत स्नेह करते थे। भील ही प्रताप के गुप्तचर भी थे और सैनिक भी। प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा के साथ ही प्रताप अस्त्र-शस्त्र की विद्या में भी पूर्णतया निपुण हो गए थे।

विवाह एवं राज्याभिषेक

उत्तराधिकार का हक होने के बावजूद प्रताप के राज्याभिषेक में भी अड़चनें आईं। मालूम हो कि प्रताप के पिता उदयसिंह की दूसरी रानी धीरबाई अपने पुत्र जगमाल को मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी, लेकिन जगमाल का उत्तराधिकारी बनना उदयसिंह को स्वीकार नहीं था और उदयसिंह ने प्रताप को अपना उत्तराधिकारी बना दिया। प्रताप को उत्तराधिकारी बनाए जाने से नाराज जगमाल मुगल राजा अकबर की ओर चला गया। महाराणा प्रताप के दो राज्याभिषेक हुए। प्रताप का पहला राज्याभिषेक 28 फरवरी सन् 1572 को गोगुन्दा में हुआ था, जबकि दूसरा राज्याभिषेक पूरे विधि-विधान से 1572 में ही कुम्भलगढ़ दुर्ग में सम्पन्न हुआ। उनके राज्याभिषेक समारोह में जोधपुर के राठौर शासक राव चन्द्रसेन भी मौजूद थे। महाराणा प्रताप ने कुल 11 शादियां हुई थीं, जिनसे उन्हें कुल 19 पुत्र-पुत्रियां हुए।

प्रस्ताव का ठुकराना और हल्दीघाटी का युद्ध

मुगल बादशाह अकबर को यह बात हमेशा खलती रही कि महाराणा प्रताप ने उसकी दासता स्वीकार नहीं की। वह महाराणा प्रताप को अपने अधीन लाने की मंशा रखता था और प्रताप स्वाधीनता के सम्बन्ध में कोई समझौता नहीं कर रहे थे। अकबर ने प्रताप से प्रस्ताव के लिए 4 राजदूत नियुक्त किए थे, लेकिन चारों को निराश होकर खाली हाथ लौटना पड़ा था। चारों राजदूतों में सन् 1572 में जलाल खां, सन् 1573 में मानसिंह, भगवानदास और टोडरमल एक-एक कर प्रताप को समझाने और अकबर का प्रस्ताव रखने में शामिल थे। प्रस्ताव नहीं मानने क परिणामस्वरूप ऐतिहासिक  हल्दीघाटी का युद्ध हुआ।

18 जून 1576 को हल्दीघाटी के मैदान में मेवाड़ की सेना का नेतृत्व महाराणा प्रताप और भीलों की सेना का नेतृत्व राणा पूंजा भील ने किया था। अकबर की सेना का नेतृत्व मानसिंह कर रहा था, जिसमें उसकी नफरी 10 हजार घुड़सवारों और हजारों पैदल सैनिकों की थी। महाराणा की ओर से 3 हजार घुड़सवार और मुठ्ठी भर पैदल सैनिक ही थे। महाराणा की तरफ से एकमात्र मुस्लिम रणबांकुरे ‘हकीम खां सूर’ थे। युद्ध के दौरान मानसिंह की सेना द्वारा महाराणा पर किए गए वार  को खुद पर लेकर हकीम खां शहीद हो गए और महाराणा प्रताप पर कोई आंच नहीं आने दिया। इस वीरतापूर्ण बलिदान के लिए हकीम खां का नाम  के लिए आ गए और हमले को इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों से अंकित हो गया। इसके अलावा महान दानवीर भामाशाह, झालामान, ग्वालियर नरेश राजा रामशाह तोमर, उनके तीनों पुत्र कुंवर शालीवाहन, कुंवर भवानी एवं कुंवर प्रताप सिंह तथा राजा रामशाह तोमर के पौत्र बलभद्र सिंह समेत कई राजपूत राजाओं ने अपने प्राणों का बलिदान देकर समरभूमि में वीरगति प्राप्त की।

हल्दीघाटीः कौन जीता, कौन हारा

हल्दीघाटी का युद्ध इतिहास के पन्नों में एक ऐसे युद्ध के रूप में दर्ज हैं, जहां स्वाधीनता और पराधीनता का युद्ध हुआ। जहां वीरता और लोलुपता का युद्ध हुआ। हल्दीघाटी के इस ऐतिहासिक युद्ध में प्रत्यक्ष रूप से तो कोई विजयी नहीं हुआ परोक्ष रूप से महाराणा प्रताप युद्ध के विजेता थे। अबकर की विशाल सेना के समक्ष महाराणा प्रताप की सेना बहुत कम थी, लेकिन उनमें बावजूद मुगलों की सेना को पूरे दिन रोक रखने की साहस और क्षमता मौजूद थी। गौरतलब है कि युद्ध आमने-सामने लड़ा गया था। महाराणा के वीर सैनिकों ने संख्या में कम होते हुए भी दिनभर युद्ध कर मुगलों की सेना को पीछे खदेड़ दिया था।

चेतक की स्वामिभक्ति

हल्दीघाटी के युद्ध में जब महाराणा प्रताप जख्मी हो गए, तो उस वक्त उनके पास कोई भी सहयोगी नहीं था। महाराणा प्रताप को चेतक बहुत प्रिय था और चेतक को महाराणा। घायल अवस्था में जैसे ही प्रताप ने चेतक की लगाम थामी, वह हवा से बातें करने लगा। चेतक को निकलता देख दो मुगल सैनिक भी उनका पीछा करने लगे, लेकिन आंधी की रफ्तार से बातें करने वाले चेतक को पकड़ पाना असम्भव था। घायल प्रताप को लिए तेजी आगे बढ़ते हुए चेतक रास्ते में एक पहाड़ी नाला आ गया। युद्ध में चेतक भी घायल हो चुका था, लेकिन अपने स्वामी महाराणा प्रताप की सुरक्षा को समर्पित बेजुबान नाला फांद गया। मुगल सैनिक नाले की दूसरी तरफ से ताकते रह गये। चेतक की यह छलांग चेतक की गति को विराम दे गया। जख्मी बेजुबान चेतक ने अपने प्राण मालिक की सुरक्षा में न्योछावर कर दिया। चेतक की मृत्यु महाराणा प्रताप को असहनीय वेदना दे गयी।  

मेवाड़ का स्वर्ण युग

हल्दीघाटी के युद्ध के बाद वर्ष 1579 से 1585 तक महाराणा प्रताप ने एक के बाद एक किले जीतने शुरू कर दिए थे। मुगलों का दबाव कम पड़ता जा रहा था। कई अन्य प्रदेशों में भी विद्रोह का लाभ उठाकर राणा प्रताप ने वर्ष 1585 में मेवाड़ मुक्ति के प्रयासों को और अधिक गति प्रदान कर दी थी। उदयपुर सहित 36 स्थानों पर महाराणा प्रताप का आधिपत्य स्थापित हो चुका था। यह मेवाड़ के लिए एक स्वर्णिम युग था। 11 वर्ष बाद 19 जनवरी 1597 को महाराणा प्रताप का देहावसान हो गया।
महाराणा प्रताप की वीरता, साहस, शौर्यता और स्वाधीनता का लोहा मुगल बादशाह अकबर ने भी माना था। वह महाराणा ही थे, जिनके डर से अकबर अपनी राजधानी लाहौर ले गया था और महाराणा के देहावसान के बाद उसने पुनः आगरा को अपनी राजधानी बनाया था। अपने जीवन से स्वाधीनता का पाठ पढ़ाने वाले महाराणा प्रताप हर भारतवासी के लिए अमर हैं।