कुमाऊं देवभूमि मैं एक समय पहाड़ के गांव में कपाट कला से सजे मकान भवनों मैं बने खूबसूरत काष्ठ कला का खास प्रचलन था। जो वर्तमान समय में धीरे- विलुप्त होती जा रही है।
अब बन रहे हैं कंक्रीरीट व सीमेंट के मकान
लेकिन आज के इस प्रतिस्पर्धा के दौर में कंक्रीटो सीमेंट से बन रहे मकानों के चलते यह कला उपेक्षित सी हो गई है।
नतीजा आज गांव की कास्ट नक्काशी युक्त दरवाजे और खिड़की वाले मकान बहुत कम देखने को मिलते हैं। या फिर ऐसे कई मकान खंडहर हालत में हैं।
कुमाऊं की कपाट कला पूर्व से ही उत्तराखंड की पारंपरिक कला का हिस्सा रही है- दरबान सिंह रावत
धौलछीना व्यापार मंडल अध्यक्ष व वरिष्ठ पत्रकार दरबान सिंह रावत बताते है की कुमाऊं में कपाट कला पूर्व से ही उत्तराखंड की पारंपरिक कला का प्रमुख हिस्सा रहा है।
मकानों के मुख्य गेट पर देवी-देवताओं से लेकर तरह-तरह के डिजाइन की नक्काशी पहाड़ के सम्पन्न घरों की पहचान होती थी

मकानों में बने मुख्य गेट पर देवी देवताओं से लेकर तरह-तरह के डिजाइन की नक्काशी पहाड़ के संपन्न घरों की पहचान हुआ करती थी। लेकिन आज इस प्राचीन शिल्प कला का अस्तित्व मिटने जा रहा है । कभी घरों की शान बढ़ाने वाली कास्ट कला अब स्मृति चिन्ह तक सिमट गई है।तब कास्ट नकाशी के आकर्षक चौखट दरवाजे वाले पत्थरों का मकान बनाना लोगों के शौक में शुमार हुआ करता था।। तथा इसके विशेष कारीगर हुआ करते थे, मगर आज ऐसे नक्काशी युक्त मकानों का बनना बंद हो गया है तथा ऐसे मकानों की संख्या नगण्य सी रह गई है।
आधुनिक युग में उपेक्षा, महंगाई, पलायन एवं स्थनीय कारीगरों की भारी कमी ऐसे भवनों के विलुप्त होने का प्रमुख कारण है
मौजूदा दौर में उपेक्षा के कारण अब काष्ठ कला धीरे-धीरे लुप्त हो रही है।जो कोई गांव में है भी तो वह पलायन के चलते लावारिस पड़े मकानों के चलते दीमक की भेंट चढ़ा रहे हैं। पहाड़ के गांव में सुंदर व आकर्षण कला को ऊकेरे चौखट दरवाजे वह छज्जे के मकान भवन स्वामी की संपन्नता को भी दर्शाते थे क्योंकि यह कलाकृति काफी महंगी होती थी।आज सीमेंट के मकान बनाने की बढ़ती स्पर्धा व महंगाई के कारण प्राचीन काल की काष्ट कला अपनी पहचान खोती जा रही है। मुख्य गेट पर बनी देवताओं की मूर्ति के साथ लकड़ी के दरवाजे अपनी भक्ति वह हिंदुत्व को दर्शाता था। आधुनिकता के इस दौर में ईट कंक्रीट वह सीमेंट के प्रयोग से मकान व भवन बन रहे हैं ।लेकिन पहले मकान की सुंदरता काष्ठ कला से होती थी। इस पारंपरिक कला के विलुप्त होने के पीछे कई कारण भी हैं। अब वन अधिनियम के चलते इमारती पर्याप्त लकड़ी उपलब्ध नहीं हो पा रही है ।वही इस शिल्प कला को बनाने वाले स्थानी कारीगर भी नहीं मिल पाते हैं। नतीजा अब गांव में पुराने पत्थर के कुछ ही मकानों में लगे दरवाजे वह चौखट पारंपरिक कला कास्ट की कहानी को बयां करते दिखाई दे रहे हैं। लेकिन उपेक्षा और उदासीनता के चलते कास्ट नक्काशी वाले नए भवन मिलना तो दूर पुराने भवनों को संरक्षित रखना भी अब टेढ़ी खीर बनता जा रहा है।
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