जब अंग्रेज 1857 में भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम को बेरहमी से कुचल रहे थे, उसके एक साल बाद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े सिपाही का तब के अविभाजित भारत, आज के बांग्लादेश में एक धनाढ्य कायस्थ परिवार में जन्म हुआ। पिता रामचन्द्र पाल जमींदार होने के साथ साथ फारसी भाषा के जाने माने विद्वान थे। विद्वता से भरे वातावरण मे पले-बड़े बिपिन चंद्र भी बांग्ला और फारसी भाषा के सहज ही गहरे जानकार हो गए और देश के विषयों में रुचि लेने लगे।
‘लाल-बाल-पाल’ की तिकड़ी
देश के एक वर्ग में उस समय तक अंग्रेजों की जकड़ से बाहर निकलने की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी थी। इस सुगबुगाहट का नामकरण 1885 में इंडियन नेशनल कांग्रेस के रूप में हुआ। बिपिन चंद्र भी इसका हिस्सा बने। मद्रास में 1887 के कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में बिपिन चंद्र ने ब्रिटिश आर्म्स एक्ट का पुरजोर विरोध करके अपने गरम तेवरों का शुरुआती परिचय दिया। बिपिन चंद्र की कांग्रेस के ऐसे ही गरम तेवरों वाले बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय से खूब जमी। कुछ ही समय बाद यह तिकड़ी पूरे भारत में ‘लाल-बाल-पाल’ के नाम से पुकारी जाने लगी।
स्वदेशी आंदोलन और पूर्ण स्वराज
कांग्रेस को बने हुए दो दशक होने को थे, लेकिन अब तक कांग्रेस के हाथ कुछ भी ठोस नतीजे नहीं आए। बिपिन चंद्र पाल ने इसका कारण कांग्रेस के नरम प्रवृत्ति वाले नेताओं को ठहराया। नरम प्रवृत्ति वाले नेता अंग्रेजों को नाराज किये बिना अपने काम करवाना चाहते थे, जो कि असंभव था। इसी कारण गरम दल वालों में बेचैनी बढ़ने लगी। ‘लाल-बाल-पाल’ को ‘पूर्ण-स्वराज’ से कम कुछ मंजूर नहीं था, जबकि नरम दल वाले ले-देकर कुछ रियायतें मांग रहे थे। आपको बता दें, 1928 में आकर नरम दल वालों ने ‘डोमिनियन स्टेटस’ की मांग की, जो ‘पूर्ण-स्वराज’ से बहुत दूर थी।
एक तरफ देश भयंकर अकाल से जूझ रहा था और दूसरी तरफ 1903 में ‘दिल्ली दरबार’ के आयोजन में धन पानी की तरह बहाया गया। गरम दल वालों के लिए ये सब असहनीय था। रही-सही कसर लॉर्ड कर्जन के फैसले ने पूरी कर दी, जिसे देशभर में बंग-भंग के नाम से जाना गया। कर्जन ने 1905 में बंगाल का विभाजन दो हिस्सों, पूर्वी और पश्चिमी बंगाल के रूप में कर दिया। इस फैसले ने आग में घी का काम किया।
लाल-बाल-पाल ने इस फैसले का तीव्र विरोध किया
लाल-बाल-पाल ने इस फैसले का तीव्र विरोध किया और अंग्रेजों को इसे वापस लेने को कहा। उन्होंने पूरे देश में इसके खिलाफ मार्च निकाले। बिपिनचंद्र के लेखों और भाषणों ने पूरे देश की आवाम को नींद से जगाने का काम किया। सम्पूर्ण देश स्वदेशी, पूर्ण-स्वराज और ब्रिटिश बहिष्कार से गूंजने लगा। इस आंदोलन ने देशवासियों को राष्ट्रीय गौरव के भाव से भर दिया। नतीजा, अंग्रेजों को 1911 में अपने फैसले को वापस लेना पड़ा। कहा जाता है कि इसी स्वदेशी आंदोलन ने देश की आजादी की नींव का पहला पत्थर रखा।
डॉमिनियन स्टेटस और पूर्ण स्वराज
डोमिनियन स्टेटस का सरल मतलब है कि स्वायत्त समुदाय जो ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत ‘हैसियत में समान’ होगा, किन्तु ‘उसकी निष्ठा महारानी के प्रति’ होगी। बता दें, डोमिनियन राज्य अपना राष्ट्रपति अथवा राष्ट्र प्रमुख नियुक्त नहीं कर सकते हैं। यह पद अप्रत्यक्ष रूप से इंग्लैंड की महारानी या फिर उनके द्वारा नियुक्त कोई व्यक्ति संभालता है। डोमिनियन राज्य की सर्वोच्च सैन्य प्रमुख इंग्लैंड की महारानी मानी जाती हैं। डोमिनियन राज्यों की विदेश नीति में भी इंग्लैंड अवांछित हस्तक्षेप कर सकता है। सरल शब्दों में कहें तो,आप आजाद होकर भी आजाद नहीं होते हैं।
पूर्ण स्वराज का मतलब है पूर्ण संप्रभुता, आंतरिक और बाहरी हर ओर से
पूर्ण स्वराज का मतलब है पूर्ण संप्रभुता, आंतरिक
और बाहरी हर ओर से। एक संप्रभु राष्ट्र ही गणराज्य कहला सकता है एक देश के लिए संप्रभुता सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है। इसी के आधार पर वह दूसरे देशों से संबंध स्थापित करता है।
स्वायत्तता और संप्रभुता में एक बुनियादी अंतर है। स्वायत्तता किसी के द्वारा दी जाती है, जबकि संप्रभुता आप स्वयं अर्जित करते हैं। यही अंतर पूर्ण स्वराज और डॉमिनियन स्टेटस के बीच है।
कांग्रेस का बंटवारा
बिपिनचंद्र पाल ने नरम दल वालों की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि वे देश को अंग्रेजी भारत बनाना चाहते हैं। वो भारतीय संस्कृति को नजरअंदाज कर देश पर अंग्रेजी मूल्यों को थोपना चाहते हैं, जो कि उन्हें मंजूर नहीं है। परिणामस्वरूप 1907 में सूरत अधिवेशन के समय आधिकारिक रूप में कांग्रेस, नरम दल और गरम दल में बंट गई। उस अधिवेशन में गरम दल, अध्यक्ष के रूप में तिलक को देखना चाहती थी, जबकि नरम दल वाले रासबिहारी बोस को। अंतत: रासबिहारी बोस ने अध्यक्षता की।
बिपिन चंद्र ने किया देश का दौरा
इसके बाद जनवरी 1907 में बिपिन चंद्र संयुक्त प्रांत में पूर्वी बंगाल, इलाहाबाद और बनारस के एक लंबे दौरे पर निकले, और दक्षिण में कटक, विशाखापट्टनम, काकीनाडा, राजमुंदरी और अंत में मद्रास तक गए। बिपिन चंद्र ने 2 मई से 9 मई, 1907 तक मद्रास के समुद्र तट पर पांच व्याख्यान दिए, जिसमें उन्होंने महाकवि भारती, सुब्रमण्यम शिव और श्रीनिवास शास्त्री की उपस्थिति में राष्ट्रीय आंदोलन के दर्शन, लक्ष्य, कार्यक्रम और रणनीति को काफी विस्तार से बताया।
अगले 15 सालों तक राष्ट्रीय आंदोलन में ‘लाल-बाल-पाल’ की तिकड़ी का दबदबा रहा । पूरे देश में उन्होंने पूर्ण स्वराज और स्वदेशी को हर जुबान पर चढ़ा दिया, जिसने आगे के स्वतंत्रता आंदोलन के लिए जमीन तैयर की।
बिपिन चंद्र पाल : एक पत्रकार के रूप में
अपने पूरे जीवन में विपिनचंद्र पाल लिखते रहे। उन्होंने कई पत्रिकाएं निकाली, जिन्होनें आवाम को देश के प्रति जुनून से भर दिया। न्यू इंडिया, द ट्रिब्यून, बंदे मातरम और बंगाल पब्लिक ओपिनियन पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने अपने विचारों को फैलाया।
लाल-बाल-पाल के बढ़ते प्रभाव के कारण अंग्रेजों ने गरम दल पर क्रूर कार्रवाई की। ‘बंदे मातरम’ अखबार बंद कर दिया गया। बाल गंगाधर तिलक को छह साल के लिए मांडले जेल में भेज दिया गया, बिपिन चंद्र को भी श्री अरबिंदो के खिलाफ सबूत नहीं देने के लिए गिरफ्तार किया गया। इस तरह की कार्रवाइयों का लंबा दौर चला, लेकिन बिपिन चंद्र बिना डरे लिखते रहे। ‘अवर रियल डेंजर’ उनका एक बहुत प्रसिद्ध लेख है।
समाज सुधारक और राष्ट्रवाद के मसीहा
बिपिन चंद्र राष्ट्रीय आंदोलन के माध्यम से सामाजिक बुराइयों को दूर और राष्ट्रवाद की भावनाओं को जगाना चाहते थे। सरकार के साथ असहयोग के रूप में हल्के विरोध में उनका कोई विश्वास नहीं था। उन्होंने गांधी के असहयोग आंदोलन की कड़ी आलोचना की थी।
बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में ही बिपिन चंद्र पाल पूर्ण स्वराज की मांग कर रहे थे। वहीं 1929 में रावी किनारे,जब जवाहरलाल नेहरू ने पहली बार कांग्रेस की अध्यक्षता की तब जाकर कांग्रेस ने पहली बार पूर्ण स्वराज की मांग की। यह गरम दल द्वारा लगातार बनाए जा रहे दबाव का एक परिणाम था। अपनी इसी दूरदर्शी सोच के कारण विपिनचंद्र पाल को ‘क्रांतिकारी विचारों का पिता’ कहा जाता है। जिसके चलते श्री अरबिंदो ने उन्हें ‘राष्ट्रवाद का मसीहा’ कहा था।
कांग्रेस पूरी तरह गांधी के प्रभाव में काम कर रही थी। बिपिन चंद्र पाल ने कांग्रेस छोड़ दी और अंतिम 10 साल एकांत में रहे। बिपिन चंद्र पाल ने 20 मई 1932 को अंतिम सांस ली। लेकिन उसके पहले वह पूर्ण स्वतंत्रता का सपना पूरे देश की आंखों में उतारने का अपना दायित्व पूरा कर चुके थे।