भारतीय राजनीति में मील का पत्थर कहे जाने वाले डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम आते ही एक ऐसा व्यक्तित्व ज़हन में आता है, जिसने जिस भी क्षेत्र में कदम रखा, वहां सफलता ने उनके पांव चूमे। इसमें कोई शक नहीं कि डॉ. श्यामा प्रसाद एक महान शिक्षाविद थे, उन्होंने शिक्षण-प्रशिक्षण कार्य में कई उपलब्धियां हासिल कीं। साथ ही राजनीति में औरों के लिए पथ प्रदर्शक बने।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने श्रद्धांजलि अर्पित की
6 जुलाई को जन संघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जयंती के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत कई लोगों ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ट्वीट में लिखा, ‘’मैं डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी (Syama Prasad Mookerjee) को उनकी जयंती पर नमन करता हूं । उनके आदर्श देश में लाखों लोगों को प्रेरणा देते हैं । डॉ. मुखर्जी ने अपना जीवन भारत की एकता और प्रगति में खपा दिया । उन्होंने एक विद्वान और बुद्धिजीवी के रूप में भी अपनी पहचान बनाई ।
जम्मू-कश्मीर में विकास की धारा डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के प्रयासों से हो पायी संभव
दरअसल आज जम्मू-कश्मीर में विकास की धारा की गति आप देख रहे हैं, वो डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के सपनों का साकार रूप ही है। जनसंघ की स्थापना के वक्त ही उन्होंने जम्मू-कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा हटाये जाने की मांग की थी। वो चाहते थे कि जम्मू-कश्मीर भी बाकी राज्यों की तरह ही देश की मुख्यधारा में शामिल हो। 2019 में उनकी इस कामना को एनडीए सरकार ने पूरा किया और आज घाटी में विकास कार्यों की गति कई गुना बढ़ गई है।
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जीवन सफर
डॉ. श्यामा प्रसाद का जन्म 6 जुलाई 1901 को कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। उनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी शिक्षाविद् के रूप में विख्यात थे। डॉ. मुखर्जी शुरू से ही अपने पिता को प्रेरणा का स्रोत मानते थे। भवानीपुर के मित्रा इंस्टिट्यूशन में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उन्होंने 1917 में मैट्रिक पास किया और 1921 में बीए। 1923 में विधि की उपाधि की। चूंकि उनको गणित में भी बहुत अधिक रुचि थी, इसलिए उन्होंने गणित से परास्नातक किया। आगे विधि में परास्नातक की पढ़ाई करने के लिए वो इंग्लैंड चले गए और 1926 में वहां से बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे और कलकत्ता, जो अब कोलकाता है, में वकालत शुरू कर दी। डॉ. मुखर्जी के पिता आशुतोष मुखर्जी कलकत्ता हाईकोर्ट में जज थे। जिस वर्ष पिता निधन हुआ, उसी वर्ष उन्होंने वकालत के लिए पंजीकरण करवाया।
24 साल की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय सीनेट के सदस्य बने
मात्र 24 साल की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय सीनेट के सदस्य बने और आगे चलकर मात्र 33 वर्ष की आयु में वह विश्वविद्यालय के कुलपति बने। मात्र 33 वर्ष की आयु में डॉ. मुखर्जी कलकत्ता विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर बने। उन्हीं के कार्यकाल में पहली बार बांग्ला में कन्वोकेशन का भाषण दिया गया, जो रबिंद्रनाथ टैगोर ने दिया। बतौर कुलपति उन्होंने पहली बार भारतीय भाषा को उच्च शिक्षा में विषय के रूप में शामिल किया।
जीवन भर राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाई
डॉ. मुखर्जी ने 1939 में राजनीति में कदम रखा और जीवन भर राजनीति में सक्रिय रहे। डॉ. मुखर्जी शुरू से ही महात्मा गांधी और कांग्रेस की उन नीतियों का विरोधी रहे, जिससे हिन्दुओं को नुकसान उठाना पड़ा। डॉ. मुखर्जी ने अपने एक अपने एक भाषण में कहा था, “वह दिन दूर नहीं जब गांधी जी की अहिंसावादी नीति के अंधानुसरण के फलस्वरूप समूचा बंगाल पाकिस्तान का अधिकार क्षेत्र बन जाएगा।”
बंगाल के हिन्दू बहुल्य इलाके कहीं ईस्ट पाकिस्तान (जो अब बांग्लादेश है) में नहीं चले जाएं, इसके लिए डॉ. मुखर्जी ने 1946 में बंगाल के विभाजन की मांग उठाई थी। 15 अप्रैल 1947 को तारकेश्वर में महासभा में उनको इस दिशा में काम करने की जिम्मेदारी दी गई।
1947 में स्वतंत्रता के बाद भारत के प्रथम मंत्रिमंडल में एक गैर-कांग्रेसी मंत्री के रूप में उन्होंने वित्त मंत्रालय का काम संभाला
मई 1947 में डॉ. श्यामा प्रसाद ने लॉर्ड माउंटबेटन को पत्र लिखकर कहा था कि बंगाल का विभाजन होना चाहिए, भले ही भारत का न हो। सुभार्ष चंद्र बोस के भाई सरत बोस और बंगाली मुस्लिम राजनेता हुसैन शाहिद सुहृवर्दी ने स्वतंत्र बंगाल की मांग की थी, जिसका डॉ. मुखर्जी ने पुरजोर विरोध किया था।
1947 में स्वतंत्रता के बाद भारत के प्रथम मंत्रिमंडल में एक गैर-कांग्रेसी मंत्री के रूप में उन्होंने वित्त मंत्रालय का काम संभाला। उन्होंने चितरंजन में रेल इंजन का कारखाना, विशाखापट्टनम में जहाज बनाने का कारखाना एवं बिहार में खाद का कारखाने स्थापित करवाए।
भारतीय जन संघ की स्थापना
1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद डॉ. मुखर्जी हिन्द महासभा में कुछ परिवर्तन करने चाह रहे थे। उसी दौरान 1951 में जम्मू-कश्मीर से जुड़े मामलों पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से वैचारिक टकराव होने पर डॉ. मुखर्जी ने इंडियन नेशनल कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया।