गांधी जयंती विशेष, जब बापू ने कमीज़ त्याग, धोती और शॉल को आजीवन अपना लिया

2 अक्टूबर को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 152वीं जयंती है। बापू की जयंती सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि विश्वभर में मनाई जाती है। महात्मा गांधी ने बेहद सामान्य सी जिंदगी जी कर दुनिया को अंहिसा और प्रेम का अनूठा संदेश दिया, जो आज भी पीढ़ियों को प्रेरित करता है। बापू से जुड़े कई ऐसे वाकये हैं, जिसने उनके जीवन पर गहरा असर डाला। गाधीं जी की मदुरै यात्रा भी कुछ ऐसी ही थी, जहां कुछ ऐसा हुआ कि गांधी जी ने गरीबों का दर्द समझते हुये धोती और शाल को जीवन भर के लिये अपना लिया।

सामान्य कपड़ों को त्याग करके एक सादी धोती और शॉल को ही जीवन भर के लिये पोशाक बनाई

दुनिया भर में इस साल राष्ट्रपिता की 152वीं जयंती मनायी जा रही है। खुद से पहले देश के बारे में सोचने वाले गांधी के जीवन में मदुरै में ऐसा ही कुछ हुआ। सितंबर 1921 में गांधी जी मदुरै की यात्रा पर थे। इतिहासकार मानते हैं कि इसी यात्रा के दौरान गांधी जी ने अपने सामान्य कपड़ों को त्याग करके एक सादी धोती और शॉल को ही जीवन भर के लिये पोशाक के रूप में धारण कर लिया। ये बापू के उन विचार की अभिव्यक्ति थी कि वे देश के तमाम गरीबों के साथ खड़ें हैं, जिनके पास पहनने के लिये कपड़े नहीं और तमाम सुख-सुविधाओं से वंचित हैं। मदुरै स्थित गांधी स्मृति संग्रहालय के निदेशक नंदा राव कहते हैं कि गरीबों के साथ उनका जुड़ाव कुछ इस कदर था कि इसके बाद फिर कभी उन्होंने कोई कमीज नहीं पहनी।

इतना ही नहीं वंचित वर्गों के साथ बापू का रिश्ता इतना गहरा था कि साल 1934 में मदुरै में ही यात्रा के दौरान जब उन्हें ये पता चला कि प्रसिद्ध मीनाक्षी मंदिर में हरीजन प्रवेश नहीं कर सकते तो उन्होंने भी मंदिर में अंदर जाने से इनकार कर दिया।

गांधी जी की मदुरै की अन्य यादगार यात्राओं में 1919 में रोलेट एक्ट के खिलाफ प्रदर्शन, स्वदेशी आंदोलन को तेज करने के लिये 1927 में हुई यात्रा औऱ 1946 में मीनाक्षी मंदिर की यात्रायें शामिल हैं। मदुरै स्थित गांधी स्मृति संग्रहालय में बापू से जुड़े कई लेख और वो धोती भी मौजूद जिसे बापू ने अंतिम दिनों में पहना था।

महात्मा गांधी के जीवन और उनके विचारों से पूरी दुनिया प्रभावित है। जरा सोचिए, गांधी जी अपने जीवन में सबसे ज्यादा प्रभावित किससे हुए थे? जवाब है, भारत के किसान।  

जी हां आज़ादी की लड़ाई में अवध के किसानों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। अंग्रेजों के खिलाफ़ उनके संघर्ष ने उनको इस कदर प्रभावित किया था कि आज़ादी के आंदोलनों में से एक नमक आंदोलन की शुरूआत करने का दायित्व रायबरेली ही को सौंपा गया था। गांधीवादी विचारक ओमप्रकाश शुक्ल कहते हैं कि ‘अवध के किसान आंदोलनों ने गांधी जी को बहुत प्रभावित किया था जो आगे चलकर न केवल नमक सत्याग्रह बल्कि अनेक आंदोलनों का आधार बना।’

किसानों के जज़्बे और जोश ने किया था प्रभावित

किसान आंदोलन के दौरान लोगों के जोश और जज़्बे से महात्मा गांधी बहुत प्रभावित थे।किसानों ने जिस तरह से रायबरेली को केंद्र में रखकर पूरे अवध में इस आंदोलन को गति दी थी उसने देश के राजनीतिक नेतृत्व को सकारात्मक संदेश दिया था। बाबा रामचंद्र के नेतृत्व में जिस तरह से किसान गांव गांव में इकट्ठे हो रहे थे और आंदोलन की रूपरेखा बन रही थी। उसे महात्मा गांधी ने परख लिया था। 7 जनवरी 1921 को मुंशीगंज गोलीकांड के बाद से ही महात्मा गांधी स्थानीय कांग्रेस नेताओं के सीधे संपर्क में थे।

कई बार उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को रायबरेली भेजकर किसानों और नेताओं से संवाद स्थापित करने को कहा था। 13 नवम्बर 1929 को वह खुद बछरांवा कस्बे में आये थे, जहां तत्कालीन कांग्रेस के जिलाध्यक्ष माता प्रसाद मिश्र व मुंशी चंद्रिका प्रसाद ने उनका स्वागत किया था। गांधी जी ने रात्रि विश्राम सूदौली कोठी में करते हुए अगले दिन लालगंज पहुंचे थे। यहां एकत्र हुई भारी भीड़ से वह इस कदर अभिभूत थे कि उन्होंने तय किया था कि सयुंक्त प्रांत में नमक सत्याग्रह की जिम्मेदारी रायबरेली को दी जायेगी।

नमक सत्याग्रह शुरू करने की मिली जिम्मेदारी

ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ महात्मा गांधी ने 12 मार्च 1930 को नमक सत्याग्रह शुरू करने की घोषणा शुरू कर दी। सयुंक्त प्रांत में सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रभारी गणेश शंकर विद्यार्थी के नेतृत्व में एक समिति का गठन हुआ। महात्मा गांधी निर्देश पर जवाहरलाल नेहरू ने इसकी शुरुआत रायबरेली से करने को कहा। इस मौके पर जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि रायबरेली में अंगद, हनुमान और सुग्रीव जैसे कार्यकर्ता हैं जो घड़ी भर की सूचना पर जान हथेली पर रखकर निकल पड़ते हैं। गांधी जी ने इस सम्बंध में स्वयं एक पत्र लिखकर रायबरेली के शिवगढ़ निवासी और साबरमती आश्रम में रहने वाले बाबू शीतला सहाय को भेजा। इस पत्र में उन्होंने नमक सत्याग्रह की कमान कालाकांकर के कुंवर सुरेश सिंह को देते हुए यह निर्देश दिया था कि अपने कार्यकर्ताओं के साथ तुरन्त रायबरेली पहुंचे।

नमक सत्याग्रह की शुरुआत सयुंक्त प्रांत में प्रभावी हो इसके लिए गांधी जी ने जवाहरलाल नेहरू को 30 मार्च को रायबरेली भेजा और तैयारियों का जायजा लिया। नेहरू जी इससे बहुत संतुष्ट हुए और उन्होंने गांधी जी पूरा विवरण भेजा। 8 अप्रैल 1930 को रफ़ी अहमद किदवई, मोहनलाल सक्सेना, कुंवर सुरेश सिंह सहित हजारों कार्यकर्ताओं ने डलमऊ पहुंचकर नमक बनाने की कोशिश की लेकिन पुलिस को इसकी भनक पहले से ही थी जिससे यह प्रयास सफल नही हो सका।

तिलक भवन से हुआ था नमक सत्याग्रह का श्री गणेश

डलमऊ के अलावा एक टीम रायबरेली के तिलक भवन में भी नमक बनाने की कोशिश में थी। 8 अप्रैल 1930 को ही पंडित मोती लाल नेहरू, कमला नेहरू, विजय लक्ष्मी पंडित, इंदिरा गांधी सहित कई कार्यकर्ता तिलक भवन में मौजूद थे। एक विशाल जुलूस के साथ मुंशी सत्यनारायण पहुंचे, जिसके बाद नारेबाजी और जयकारों के बीच एक तोला नमक बनाया गया। जिसे मोती लाल नेहरू ने वहीं नीलाम भी कर दिया। मज़ेदार बात यह है कि यह नमक 51 रुपये में मेहर चंद्र खत्री ने खरीदा था जिनके पिता लक्ष्मी नारायण ब्रिटिश कर्मचारी थे व उस समय डिप्टी कमिश्नर के चीफ़ रीडर थे। बाद में पुलिस ने कई लोगों को गिरफ़्तार कर लिया। रायबरेली में नमक सत्याग्रह की शुरुआत होते ही पूरे प्रांत में नमक बनाने की होड़ लग गई। पूरे सयुंक्त प्रांत में यह सबसे सफल आंदोलन बना जिसकी कमान रायबरेली के हाथों में थी।