अखिल भारतीय सर्वभाषा संस्कृति समन्वय समिति, नई दिल्ली के तत्त्वावधान में ‘स्व. श्री अरुण वर्धन स्मृति संध्या’ का आयोजन

अखिल भारतीय सर्वभाषा संस्कृति समन्वय समिति, नई दिल्ली के तत्त्वावधान में  हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार और कहानीकार अरुण वर्धन की स्मृति में वर्चुअल स्मृति-संध्या का आयोजन किया गया, जिसमें देशभर से साहित्य और पत्रकारिता जगत् की बड़ी हस्तियों ने उनके साथ के अपने अनुभवों को साझा करते हुए उनके साहित्यिक और पत्रकारीय योगदान की चर्चा की।

अरुण वर्धन ने पत्रकारिता को मिशन माना, प्रोफेशन नहीं। उनके डीएनए में ही साहित्य था।

स्मृति संध्या की अध्यक्षता कर रहे अखिल भारतीय सर्वभाषा संस्कृति समन्वय समिति के अध्यक्ष और वरिष्ठ कवि पंडित सुरेश नीरव ने कहा कि ‘अरुण वर्धन ने पत्रकारिता के मानवीय मूल्यों का निर्भीकता से वर्धन किया है।’ इसके साथ ही उन्होंने उनकी स्मृति में ‘अरुण वर्धन पत्रकारिता पुरस्कार’ प्रारम्भ करने का सुझाव भी दिया। आगे पंडित नीरव  ने कहा कि मैंने यह नहीं सोचा था कि मुझे उनकी स्मृतियों को चित्रित करना पड़ेगा, इसके लिए मैं तैयार नहीं था। उन्होंने कहा कि स्व. अरुण वर्धन ने पत्रकारिता को मिशन माना, प्रोफेशन नहीं। उनके डीएनए में ही साहित्य था। इसीलिए वे कहते थे कि ‘साहित्य तसल्ली से लिखी गई पत्रकारिता है और पत्रकारिता जल्दबाजी में लिखा गया साहित्य।‘ इसके आगे उन्होंने कहा कि पत्रकारिता में समझौतावादी कुहासे को छेदकर उनकी छवि निर्मित होती है।

उनकी लेखनी में मन्दाकिनी बहती है, साहित्य की भी और पत्रकारिता की भी।

स्मृति संध्या को अपना सन्निधान प्रदान कर रहे वरिष्ठ पत्रकार और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, नई दिल्ली के अध्यक्ष श्री रामबहादुर राय ने कहा कि ‘अरुण जी चले नहीं गए, महामारी ने उन्हें हमसे छीन लिया।’ उन्होंने आगे कहा कि ‘उनकी लेखनी में मन्दाकिनी बहती है, साहित्य की भी और पत्रकारिता की भी।‘ उन्होंने कहा कि वे पत्रकारों में विरले थे। वे अब श्रुति और स्मृति के व्यक्ति हो गए हैं। उनका जाना मेरे लिए निजी क्षति है।

उन्होंने लगभग चार दशकों तक मूल्याधारित पत्रकारिता की

स्मृति संध्या के प्रारंभ में संयोजक अविनाश कुमार सिंह ने स्व. श्री अरुण वर्धन का संक्षिप्त परिचय दिया और पटना के वरिष्ठ संगीतज्ञ डॉ. शंकर प्रसाद के भजन प्रस्तुत किए। अपने वक्तव्य में प्रभात प्रकाशन के निदेशक श्री प्रभात कुमार ने कहा कि हमारे-उनके पारिवारिक सम्बन्ध रहे हैं। उन्होंने साहित्यिक लेखन न करके पत्रकारीय लेखन को चुना और उसमें अपना मुकाम बनाया। उनकी रिपोर्टिंग में एक धार थी। उन्होंने पत्रकारिता के मूल्यों से कभी समझौता नहीं किया। उनकी सबसे बड़ी शक्ति आत्मसम्मान की थी। उन्होंने परिवार में सबको अपने आत्मसम्मान के साथ जीने को प्रेरित किया और मार्गदर्शन दिया। उनकी धर्मपत्नी और दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और पत्रकारिता की विश्लेषक कुमुद शर्मा और उनके पुत्र जिसने फ़िल्म जगत् में अंतरराष्ट्रीय ख़्याति प्राप्त की है, इसका उदाहरण हैं। इसके आगे उन्होंने कहा कि समाज और राष्ट्र उनके चिंतन के केन्द्र में रहे हैं। इसके बाद प्रो. अरुण कुमार भगत जी (सदस्य, बिहार लोक सेवा आयोग) ने उनकी पत्रकारीय जीवन की चर्चा करते हुए कहा कि वे राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पत्रकार, लेखक, चिंतक और कहानीकार थे। उन्होंने लगभग चार दशकों तक मूल्याधारित पत्रकारिता की। उन्होंने उनके कहानीकार पक्ष को सामने रखते हुए कहा कि अगर उनकी कहानियों का संकलन प्रकाशित हो जाए तो यह उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी। उन्होंने कहा कि अंतिम क्षणों तक में उनकी जीवटता दिखती रही। डेढ़ महीनों तक उन्होंने कोविड से संघर्ष किया।

ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त पिता के संघर्ष को देखते हुए साहित्य की बजाय पत्रकारिता को लेखन का माध्यम बनाया।

वरिष्ठ पत्रकार श्री राहुल देव ने उनके साथ के अनुभव साझा करते हुए कहा कि हम पिछले दस वर्षों से पड़ोसी हैं। वे शुद्ध संघर्ष और अदम्य जिजीविषा के उदाहरण हैं। उन्होंने अपने ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त पिता के संघर्ष को देखते हुए साहित्य की बजाय पत्रकारिता को लेखन का माध्यम बनाया। इस कारण साहित्य का नुकसान जरूर हुआ, पर पत्रकारिता को लाभ मिला। उन्होंने उनकी कहानी ‘उत्सव’ का भी उल्लेख किया।

पूर्व राज्यसभा सांसद श्री महेश चन्द्र शर्मा ने कहा कि

पूर्व राज्यसभा सांसद श्री महेश चन्द्र शर्मा ने कहा कि उन्होंने भारत की संवाद-प्रक्रिया के रूप में अपना जीवन जिया। हमने हिंदी-जगत् की बड़ी हस्ती को खो दिया है। इसके पश्चात् प्रो. माला मिश्रा (दिल्ली विश्वविद्यालय) ने कहा कि खोजी पत्रकारिता के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर के रूप में वह सदैव याद किए जाएँगे। राष्ट्रवादी सोच और चिंतन उनके केन्द्र में रहा है।

आत्मन्! हे आत्मन्!
अर्पित तुम्हें श्रद्धा सुमन…

स्व. अरुण वर्धन के पुराने मित्र श्री महेंद्र वेद (वरिष्ठ पत्रकार, टाइम्स ऑफ इंडिया, नई दिल्ली) ने कहा कि भाषा की सीमाओं से ऊपर उठकर हम साथ मिलते थे। साहित्य और पत्रकारिता के अतिरिक्त वे चित्रकला में भी अपनी अच्छी समझ रखते थे।
भिवानी के कवि डाॅ. रमाकांत शर्मा ने अपनी पद्य शब्दांजलि देते हुए कहा कि इसके शब्द मेरे हैं, पर भाव कुमुद जी के हैं। कविता की कुछ पंक्तियाँ यहाँ उदधृत हैं —
‘आत्मन्! हे आत्मन्!
अर्पित तुम्हें श्रद्धा सुमन।
चिर विदा आनंद मेरे,
चिर विदा प्यारे अरुण।‘

श्री अरुण वर्धन की धर्मपत्नी प्रो. कुमुद शर्मा ने नम नयन से उनकी स्मरण करते हुए कहा कि

इस अवसर पर दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी-विभाग की प्रोफेसर और स्व. श्री अरुण वर्धन की धर्मपत्नी प्रो. कुमुद शर्मा ने नम नयन से उनकी स्मृति को याद करते हुए कहा कि डेढ़ महीने के बाहरी संघर्ष के बाद अब मैं आंतरिक संघर्ष से जूझ रही हूँ। वे मेरे पति ही नहीं, मित्र थे।…उन्होंने कभी अपनी पहचान किसी और पर नहीं थोपी। वे कहते थे कि ‘तुम अपने नाम से पहचानी जाओगी, मेरे नामों से नहीं।‘ वे बहुत अच्छे साहित्यकार हो सकते थे। उनके डीएनए में साहित्य था, वह चोटी के साहित्यकार हो सकते थे। पर इसके लिए वे अपने परिवार को संघर्ष में डालना नहीं चाहते थे। वे एक उत्सवधर्मी प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। मेरे साथ यात्राओं पर उत्साहित रहते थे।
इसके पश्चात् दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र निर्देश प्रजापति ने शांतिपाठ किया और एक मिनट के मौन के साथ इस स्मृति-संध्या का समापन हुआ।

100 से अधिक लोगों मौजूद रहे

कार्यक्रम का संचालन और संयोजन दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर डॉ. जीतेन्द्र वीर कालरा और सह-संयोजन श्री अविनाश कुमार सिंह और सुश्री रश्मि राणा ने किया। कार्यक्रम में देशभर से 100 से अधिक लोगों ने गूगल मीट और फेसबुक के माध्यम से अपनी सहभागिता दी ।